सुंड गहि आतुर उबारि धरनी पै धारि,बिबस बिसार काज सुर के समाज को,
कहै रत्नाकर निहार करुना की कोर, बचन उचार जो हरैया दुःख साज को,
अम्ब पूर दृगन बिलम्ब अपनोई लेख, देख देख दीह छत दंतन समाज को,
पीत पट लै लै कै अंगौछत शरीर को, कंजनि ते पोछ्त भुसुंडि गजराज को,
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